केदारनाथ का इतिहास क्या है-History of Kedarnath Temple

केदारनाथ का इतिहास क्या है?

केदारनाथ भगवान शिव को समर्पित पवित्र धार्मिक स्थल है। ऐसा मान्यता है यहां पर भगवान भोलेनाथ साक्षात पिंडी रूप में विद्यमान रहते है। तथा अपने भक्तों का कल्याण करते है। यह दिव्य स्थान उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है। जो लगभग 3800 M की ऊंचाई पर स्थित है।

केदारनाथ मंदिर का इतिहास क्या है

केदारनाथ मंदिर एक अनसुलझी पहेली है !!

जून 2023 में भारत के उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश के राज्यों में बाढ़ और लैंडस्लाइड के कारण केदारनाथ सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र रहा। मंदिर के आसपास की मकानें बह गई। इस ऐतिहासिक मंदिर का मुख्य हिस्सा एवं सदियों पुराना गुंबद सुरक्षित रहे लेकिन मंदिर का प्रवेश द्वार और उसके आस-पास का इलाका पूरी तरह तबाह हो गया।

केदारनाथ की उत्पत्ति कैसे हुई?

इस ज्योतिर्लिंग का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार शृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया गया था। यह स्थान हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर स्थित है।

इस मंदिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, लेकिन यह एक हजार से अधिक वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल रहा है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह 12वीं या 13वीं शताब्दी का है। ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनवाया हुआ है जो 1076-1099 काल के थे। एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया था जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है।

केदारनाथ की असली कहानी क्या है?

कालान्तर द्वापर-युग में महाभारत युद्ध के उपरान्त पाण्डव अत्यंत दुखी हुए थे क्योंकि उन्होंने अपने ही जाति के लोगों को मार डाला था। उन्होंने भगवान शिव के दर्शन करने के लिए केदार क्षेत्र में जाना था। भगवान शिव नहीं चाहते थे कि वे गोत्र-घाती पाण्डवों को प्रत्यक्ष दर्शन दें। इसलिए, वे मायावी महिष के रूप में धारण कर केदार में विचरण करने लगे। पाण्डवों को बुद्धियोग से ज्ञात हो गया कि शंकर भगवान हैं तो वे महिष के रूप में उनका पीछा करने लगे। जब महिष रूपी शिव भूमिगत होने लगे तो पाण्डवों ने उनके पृष्ठ भाग को पकड़ लिया और विनम्रता से प्रार्थना अराधना करने लगे।

भगवान शिव ने पाण्डवों की प्रार्थना को सुना और महिष के पृष्ठ भाग के रूप में भगवान शंकर श्री केदारनाथ में भूमिगत हो गए। भगवान का श्रीमुख नेपाल में पशुपतिनाथ के रूप में प्रकट हुआ। पाण्डवों ने श्री केदारनाथ में भगवान शिव की विधिवत पूजा अर्चना की जिससे वे गोत्र हत्या के पाप से मुक्त हुए और भगवान श्री केदारनाथ जी के विशाल एवं भव्य मंदिर का निर्माण किया। तब से भगवान शिव श्री केदारनाथ में निरंतर वास करते हैं।

श्री बदरीनाथ जी की यात्रा से पहले भगवान श्री केदारनाथ जी के दर्शनों का महत्व है। सत्ययुग में इसी स्थान पर एक राजा ने घोर तपस्या की थी, इस कारण से इस क्षेत्र को केदार क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। केदार का शब्दार्थ दलदल होता है और भगवान शिव दल-दल भूमि के अधिपति भी हैं। इसलिए दल-दल (केदार) के (नाथ) पति से केदारनाथ नाम पड़ा। महाभारत में इस भूमि में मन्दाकिनी, अलकनन्दा और सरस्वती नदियों का उल्लेख है।

केदारनाथ में अनेक मुक्ति प्रदान करने वाले तीर्थ स्थान हैं। केदारनाथ मंदिर के चारों तरफ बहने वाली दुग्ध गंगा, मन्दाकिनी आदि देव नदियों के जल में स्नान करने से आयु बढती है। केदारनाथ के पश्चिम उत्तर दिशा में लगभग 8km की दूरी पर वासुकी ताल है। इस क्षेत्र में ब्रह्मकमल, गुग्गुल, जटामांशी अतीस, ममीरा, हत्थाजड़ी आदि जड़ी बूटियां प्राकृतिक रूप से उगती हैं।

ध्यानमुद्रा में भगवान शंकर

केदारनाथ में जो शिवलिङ्ग विद्यमान है ऐसा माना जाता है यह आदि कल्प से ही यहां पर स्थित है। विज्ञानक साक्ष्य तथा कार्बन डेटिंग तकनीकों से भी यह विदित होता है कि इस दिव्य शिवलिंग की स्थापना आज से ढाई लाख वर्ष पूर्व की गई होंगी।

इस शिवलिंग की आदि कल्प में भगवान नर-नारायण ने सबसे पहले पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उनकी प्राथना पर सदा के लिए इस दिव्या ज्योतिर्लिंग में विद्यमान रहने का वर दिया। यही नर-नारायण प्रभु द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन हुए । और धरती के बोझ को कम किया।

भगवान नर और नारायण

केदारनाथ का जो मन्दिर का भीतरी गर्भ आज विद्यमान है उसका निर्माण आज से 5000 हज़ार वर्ष पूर्व पांडवो के पौत्र परीक्षित के पुत्र जनमेजय द्वारा किया गया। फिर 8वी सदी में आदि गुरु शंकराचार्य ने इसका जीर्णोद्धार करवाया।

केदारनाथ मंदिर

महाभारत में भी इस मंदिर का जिक्र मिलता है। जब पांडवों ने कुरुक्षेत्र के युद्ध मे अपने भ्रातृ हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए भगवान शिव को प्रसन्न करना चाहते थे। पर भगवान शिव उन्हें उस पाप से मुक्ति नहीं दिलाना चाहते थे। इसकी असल वजह पांडवो का अहंकार था। इसके स्बन्ध में यह कथा है कि भ्रातृ हत्या की मुक्ति के लिए जब पांडव काशी में भगवान शिव की खोज पर निकले तो भगवान वहां से अंतर्ध्यान हो जाते है और केदारनाथ में पहुंच जाते है। जब पांडव भगवान भोलेनाथ की खोज में केदारनाथ तक पहुंच गए । तो भगवान पास घास चर रहे बैलों के झुंड में बैल बनकर गुल मिल जाते है।

पांडव

जब पाण्डव केदारनाथ में भी भगवान को नहीं पाते । तो भगवान वासुदेवः की शरण मे अंतर्मन से जाते है तथा मार्ग दर्शन की प्राथना करने लगे। भगवान वासुदेव तब पांचो पांडवो को बैलों के उस झुंड की ओर एक साथ संकेत किया । भगवान ने संकेत तो दे दिया पर पांडव भगवान शिव की माया से उन्हें उनके बीच नही पहचान पाए । वे चाह कर भी उन्हें नजर नहीं आते। तब भीम को ने शिव को पहचानने के लिए एक युक्ति की ।

उन्होंने ने अपना शरीर पर्वत के समान विशाल कर दिया ।उसके भीमकाय शरीर को देख कर अन्य सारे बैल तो तीतर-बितर हो जाते है पर जिस बैल का भोलेनाथ ने रूप धरा था वही पर अड़िग रहता हैं। जब पांडवों ने उस बैल के रूप में भगवान शिव को पहचान लिया। और उनकी शरण में जाने लगे पर जैसे ही वे करीब आते भगवान शिव रूपी बैल भाग जाता। पांडव उसके पीछे हो जाते।

जब पांडवो ने एक साथ घेर कर उस बैल को पकड़ना चाहा तो, भगवान अंतर्ध्यान होने ही वाले थे कि भीम ने उस बैल की पीठ को भक्ति के कारण पकड़ लिया। जो हिस्सा भीम ने पकड़ा था । वह आज भी केदारनाथ के मन्दिर के भर एक विशाल काले पत्थर के रूप में नजर आता है। उस बैल के पीठ का अगला धड़ा काठमांडू में प्रकट हुआ । जहां आज विश्व विख्यात पशुपतिनाथ मंदिर बना है।

पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल

उस बैल का मुख रुद्रनाथ में प्रकट हुआ तथा नाभि मणिमहेश में जाकर प्रकट हुई।

मणिमहेश, हिमाचल प्रदेश

औऱ पूँछ कल्पेश्वर में प्रकट हुई। भुजाऐ तुंगनाथ में जाकर प्रकट हुई। तब पांडव दुखी होकर निराहार होकर केदारनाथ शिवलिंग की पूजा करने लगे। जब उनके शरीर लकड़ी की भांति हो गए और अहंकार नष्ट हो गया तब भगवान शिव ने पांडवो की दृढ़ भक्ति देख कर उन्हें केदारनाथ में अपना छंदम रूप त्याग कर साक्षात दर्शन दिए तथा उनके किये गए सारे पापो को क्षमा कर दिया। और वर मांगने को कहा । तब पांडवो ने शिव से सदा के लिए यहीं पर रहने का प्रभु से याचना की । तब भगवान शिव ने यह वचन दिया कि वे सदा के लिए इन पंचकेदारनाथो में रहेंगे तथा अपने भक्तों का उद्धार करेंगे ।

केदारनाथ मन्दिर की तीर्थ यात्रा भारत वर्ष में हजारों सालों से हो रही है जिसका वर्णन बौद्ध ग्रन्थो, जैन ग्रन्थो, मौर्य काल के लेखों में भी वर्णन मिलता है।

एक दूसरी मान्यता है कि यदि बिना केदारनाथ गए बद्रीनाथ की यात्रा कोई करता है तो वह पाप माना जाता है। तथा उसे उस यात्रा का कोई फल नहीं मिलता।

केदारनाथ को 12 ज्योतिर्लिंग में भी एक माना जाता है। वहीं चार धामो में एक स्थान माना जाता है।

भगवान शिव ने इसका प्रमाण 2013 में मन्दाकिनी नदी में आई बाढ़ में भी दिया था जब केवल मन्दिर के मुख्या कक्ष जहाँ स्वयम्भू शिवलिंग विद्यमान है को छोड़ कर पूरे क्षेत्र को तवाह कर दिया था। मन्दिर को छोड़ कर सारी बस्तियां तीतर-बितर हो गयी थी । इससे बड़ा भोलेबाबा को चमत्कार औऱ क्या हो सकता है।

यहां के पुजारियों तथा साधु-मुनियों का दावा है कि आज भी हर अमावस्या के दिन स्वयम्भू शिवलिंग में एक दिव्या ज्योति समाती हुई दिखती है। जिसे भक्त गण साक्षात शिव का आने कहते है।

मन्दिर के बाहर आज भी उस बैल की पीठ का कुछ हिस्सा पाषाण रूप में विद्यमान है जिसे भीम ने पकड़ा था ।

केदारनाथ में नवम्बर से अप्रैल तक भारी बर्फवारी रहती है जिस कारण इस समय यात्रा रोक दी जाती है। मई औऱ अक्टूबर के बीच श्रद्धालुओं को इसकी यात्रा पर जाना चाहिए। क्योंकि यह मानव देह बड़ी ही दुर्लभ है अंत एक बार तो जरूर जीवन मे भगवान के दर्शन के लिए सहपरिवार अवश्य जाना चाहिए। क्या पता फिर मानव देह मिले या न मिले।

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